कई दिन पहले धमकी दी थी कि भैरव प्रसाद गुप्त की कहानियों पर लिखा लेख यहाँ चिपकाऊंगा. 'नया पथ' के पिछले अंक से साभार है. मुश्किल से ढाई हज़ार शब्द. साथ में मनोज कुलकर्णी की बनाई भैरव जी की तस्वीर.
--------------------------------------------------------------
संघर्ष और उम्मीद के कहानीकार : भैरव प्रसाद गुप्त
संजीव कुमार
भैरव प्रसाद गुप्त उन लेखकों में से हैं जिनका रचनात्मक लेखन उनकी सम्पादक और साहित्यिक नेता वाली छवि की वृष्टि-छाया में पड़ा रहा है. उनके उपन्यासों की तो फिर भी थोड़ी चर्चा हुई, कहानियां लगभग भुला दी गयी हैं.
कथाकार भैरव प्रसाद गुप्त से मेरा भी पहला परिचय उनके उपन्यासों के ज़रिये ही हुआ था, अपने सोपाधि शोध के दौरान. याद आता है कि पिछली सदी के आख़िरी सालों में, बतौर शोधार्थी, 'सत्ती मैया का चौरा' को पढ़ते हुए मैं जनजीवन के साथ उनके परिचय की गहराई और रेंज से प्रभावित हुआ था. साथ ही, मुझे यह भी लगा था कि अपनी वैचारिक पक्षधरता को कथा में घुला पाने की योग्यता मशाल, ज़ंजीरें और नया आदमी आदि की बनिस्पत यहाँ बहुत आगे की है, अगरचे कम्युनिस्ट प्रवक्ता पात्र के माध्यम से घटनाओं की अपनी व्याख्या किंवा विमर्श पेश करने की हिकमत यहाँ भी है, जो मार्क्सवाद से प्रभावित पांचवें और छठे दशक के उपन्यासकारों में बहुत आम है. (यह कमोबेश सबके यहाँ मिलता है—चाहे वह 'दादा कामरेड', 'देशद्रोही' और 'मनुष्य के रूप' वाले यशपाल हों, या 'बलचनमा', 'दुखमोचन' और 'वरुण के बेटे' वाले नागार्जुन, या 'सीधा-सादा रास्ता' वाले रांगेय राघव, या 'बीज' वाले अमृत राय. इस क्रम में और भी नाम गिनाये जा सकते हैं. संघर्ष-केन्द्रित कथावस्तु, राजनीतिक तर्क-वितर्क के लिए औपन्यासिक संवादात्मकता का उपयोग, प्रवक्ता पात्र द्वारा पेश किये गए विमर्श में उन बहसों का समाहार, संघर्ष की सफलता और असफलता दोनों सूरतों में उपन्यास का आशावादी अंत—यह एक ऐसा कथात्मक ढांचा है जो उस दौर के मार्क्सवादी उपन्यासकारों के यहाँ लगभग निरपवाद रूप से मौजूद है. इस ढाँचे को सूत्रबद्ध करने और उसका गंभीर विश्लेषण करने के प्रयास हिन्दी में संभवतः नहीं हुए हैं, अलग-अलग उपन्यासों की सराहना और निंदा करनेवाली आलोचनाएं जितनी भी हुई हों.) इस चीज़ से बच पाना उस दौर के उपन्यासकार के लिए शायद मुमकिन नहीं था जब राजनीति से लेकर साहित्य तक वाम-जनवादी आन्दोलन में ज़बरदस्त सक्रियता और आशावाद की लहर था, ट्रेड यूनियनों और किसान संगठनों का लगातार विस्तार हो रहा था, और प्रगतिशील लेखक के ज़हन में उसकी आत्मछवि क्रांति की तैयारी में लगे कलम के सिपाही की थी. उस लेखक के यहाँ अपने समय के यथार्थ के दबाव में और स्वयं अपने लिए निर्धारित किरदार के दबाव में ऐसे वर्गचेतन पात्रों का आना बहुत स्वाभाविक था जो क्रांति के पक्ष में खड़े होकर स्थितियों का विश्लेषण करें और इस तरह उपन्यास में घटनाएं ही नहीं, उनसे सम्बंधित विमर्श भी मुखर होकर उभरे. लेकिन दबाव सिर्फ समय के यथार्थ और अपने लिए निर्धारित किरदार का नहीं था. कहीं-न-कहीं यह उपन्यास का विधागत दबाव भी था—एक ऐसी विधा का दबाव जो आधुनिक युग का महाकाव्य होने की दावेदार है, जिसमें युगबोध को विन्यस्त करने की गुंजाइश है, जिसमें समकाल का कोई कोना नहीं बल्कि कोना-कोना झाँक आने की क्षमता है. ऐसी विधा की रचना में किसी पात्र को प्रवक्ता बनाने से रचनाकार को अपने युग का घेराव करने की सहूलियत मिल जाती थी. आप पायेंगे कि यही कथाकार अपनी कहानियों में प्रवक्ता पात्र की युक्ति का उपयोग लगभग नहीं करते, या करते भी हैं तो उसकी भूमिका को बहुत सीमित रखते हुए. कारण यह है कि कहानी की विधा उस महत्वाकांक्षा से ही वंचित रही है जो उपन्यास की जन्मकुण्डली में दर्ज है.
भैरव जी के यहाँ भी अपनी वैचारिक पक्षधरता को मुखर करने की यह युक्ति जिस तरह उपन्यासों में इस्तेमाल हुई है, उस तरह कहानियों में नहीं. उनकी जो कहानियां मैं पढ़ पाया हूँ, उनमें वे बहुत स्वाभाविक कहानीकार नज़र आते हैं जिसके पास पाठक को सुनाने के लिए घटनाओं का और चरित्र के साथ उनके घात-प्रतिघात का एक दिलचस्प और मानीखेज़ सिलसिला है. ज़ाहिर है, ये घटनाएं वह अपनी रुचि के क्षेत्र से ही चुनेगा—उसके यहाँ ट्रेड यूनियन, हड़ताल, जनता के संघर्ष, पूंजी के तंत्र में पिसते और अपना पक्ष चुनते पात्र आयेंगे—लेकिन कहानी के बीच-बीच में पार्टी क्लास लगाने का काम उन्होंने नहीं किया है.
'हड़ताल', 'हनुमान', 'आप क्या कर रहे हैं', 'एक पांव का जूता', 'गत्ती भगत', 'पियारा बुआ', 'बिगड़े हुए दिमाग', 'श्रम'—भैरव जी की ये ऐसी कहानियां हैं जिन्हें भुलाया नहीं जाना चाहिए. इनमें से 'एक पांव का जूता' और 'पियारा बुआ' को छोड़ दें तो सभी कहानियां व्यवस्था की आलोचना और व्यवस्था-विरोधी संघर्ष पर केन्द्रित हैं और हर कहानी में इस आलोचना तथा संघर्ष का कोई-न-कोई महत्वपूर्ण पहलू उभरकर सामने आता है. साथ ही, ये सभी कहानियां सुगठित भी हैं. संघर्ष की थीम तो 'मंगली की टिकुली' और 'मां' जैसी कहानियों में भी है, पर मैंने उनका नाम नहीं लिया. वहाँ या तो कहानी अपने विस्तार में अनगढ़-सी हो जाती है और कुछ भी केन्द्रीय नहीं रह जाता ('मां'), या फिर संघर्ष के नाम पर मालिक की आँख में हंसिया घुसा देने और लिंग काट लेने जैसा भोंडापन दिखाकर निपट जाती है ('मंगली की टिकुली'). इनके मुक़ाबले पूर्वोक्त कहानियों को देखें तो उनका गठन और संवेदनात्मक सन्देश, दोनों मिलकर उन्हें यादगार बना देते हैं. 'हड़ताल' के प्रान बाबू, 'आप क्या कर रहे हैं' का वाचक हरनंदन और मुख्य पात्र नवाब, 'बिगड़े हुए दिमाग' की बतकी, 'हनुमान' का हनुमान, 'एक पांव का जूता' के बाबूजी, 'गत्ती भगत' के गत्ती भगत, और 'श्रम' का सर्वनाम-सूचित नायक—ये सभी किसी-न-किसी वजह से याद रह जानेवाले पात्र हैं. इनमें से ज़्यादातर ऐसे उसूल वाले पात्र हैं जिनके उसूल उन पर चिपकाए हुए नहीं लगते और जो इतने वास्तविक प्रतीत होते हैं कि उनसे पाठक जुड़ सकता तथा प्रेरणा ग्रहण कर सकता है. जिन पात्रों को बहुत सकारात्मक रौशनी में, वैचारिक प्रतिबद्धता या उसूल के उदाहरण के तौर पर नहीं गढ़ा गया है, बल्कि अवसाद में जिनका अंत होता दिखाया गया है, वे भी व्यवस्था की मूलगामी आलोचना का आधार तैयार कर जाते हैं और उनके साथ आपका तादात्म्य आपको बहुत शिद्दत से यह अहसास कराता है कि अवसाद पूंजीवादी तंत्र में निहित अन्याय का परिणाम है.
निहायत सहज और आयास-हीन वर्णन-शैली में लिखी ये कहानियां मानव जीवन के गहरे प्रेक्षणों को सामने लाती हैं. आपको कई बार आश्चर्य होता है कि बड़ी बात कहने का कोई दिखावा किये बगैर, अपने साधारण रंग-ढंग में ये कहानियाँ कितनी बड़ी बात कह रही हैं! 'हड़ताल' इसका उम्दा उदाहरण है. कहानी प्रान बाबू के लगभग उन्मादी उत्साह के वर्णन से शुरू होती है, पीछे जाकर बहुत तेज़ी से बताती है कि क्लर्की में फंसा हुआ यह आदमी कैसे लेखक बनने की अपनी महत्वाकांक्षा से दूर हटता गया और तंगी में जीता हुआ गहरे अवसाद में उतर गया, पहले ठर्रे और फिर खर्च को देखते हुए भंग के नियमित सेवन का शिकार हुआ, और आज कैसे एक कामयाब होती हड़ताल ने उसके भीतर प्राण फूंक दिये हैं. प्रान बाबू कॉफ़ी हाउस के हर कोने में चहकते और मुकम्मल हड़ताल होने की खबर साझा करते दिखायी देते हैं, उनका चुप्पापन ग़ायब हो जाता है, शाम ढले भंग का गोला खाना भी भूल जाते हैं और जब याद आता है, तब भी यह सोचकर नहीं खाते कि इस भुतहे नशे के बाद सबसे बातचीत कैसे करेंगे! लेकिन यह खुशी ज़्यादा देर टिकती नहीं और ख़बर मिलती है कि हड़ताल को नाकाम साबित करने के लिए प्रबंधन की साज़िश से रात गये दफ़्तर में हाज़िरी लगायी जा रही है. इसके बाद वे एकाएक फिर चुप हो जाते हैं, दफ़्तर जाकर हाज़िरी रजिस्टर में दस्तख़त कर आने की सलाह को अनसुना करके सोने चले जाते हैं और अगली सुबह अपने बिस्तर में मरे हुए पाये जाते हैं. प्रान बाबू के मर जाने की सूचना को हम एक हद तक अतिवादी अंत कह सकते हैं जो ठीक-ठीक गले नहीं उतरता (हालांकि उसके भी प्रतीकार्थ पर बात की जा सकती है), पर इससे पहले की पूरी कहानी अपने छोटे आकार में ही जितने बड़े मुद्दों की ओर हमारा ध्यान खींचती है, वह असाधारण है. परिवर्तनकामी संघर्ष के सौन्दर्य और व्यक्तित्वांतरण करने की उसकी क्षमता को यह कहानी जितनी कुशलता से व्यंजित करती है, उतने ही कौशल से व्यवस्था की श्रम-विरोधी और अंततः मानव-विरोधी साज़िशों की ओर भी संकेत करती है.
व्यक्तित्वांतरण की प्रक्रिया का एक दूसरा रूप 'आप क्या कर रहे हैं' कहानी में मिलता है. प्रथम पुरुष वाचन में कही गयी यह कहानी अपेक्षाकृत लम्बी है और सावधानी से न पढ़ें तो यह वाचक के संपर्क में आये एक वर्गचेतन किशोर की संघर्षशीलता की कहानी भर प्रतीत होगी. लेकिन मुकम्मल तौर पर यह उस किशोर से प्रभावित मध्यवर्गीय वाचक के व्यक्तित्वांतरण की कहानी भी है. गोया 'अँधेरे में' का कथ्य फैंटेसी का रचना-विधान छोड़कर कथा में उतर आया हो. 12-13 साल का नवाब इस कहानी का नायक है. वह जितना हुनरमंद और सुरुचिसम्पन्न है, उतना ही स्वाभिमानी. उससे वाचक की पहली मुलाक़ात अपने एक मित्र के घर पर होती है जहां वह अपने अब्बा की जगह पर नौकर के रूप में कुछ दिन सेवाएं देने आया है. उसका स्वाभिमान ऐसा है कि सामंती संस्कार वाले किसी मध्यवर्गीय के लिए उसे पचा पाना मुश्किल है. वह वाचक की बख्शीश तक क़बूल नहीं करता, क्योंकि 'बख्शीश और भीख में क्या फ़रक है? यही न कि भीख मांगने पर दी जाती है और बख्शीश बिना मांगे!' उसके बाद वाचक से उसकी मुलाक़ात तब होती है जब वह 'इंक़लाब' अखबार बेच रहा है. पता चलता है कि इसी अखबार के सम्पादक के यहाँ काम करने के दौरान उसने पढ़ना-लिखना सीखा और अब सप्ताहांत में अखबार बेचने का काम करता है. वाचक से उसकी एक बार फिर मुलाक़ात तब होती है जब वह पुलिया पर सायकिल ढोकर पार ले जानेवाले कुली बच्चों के बीच संगठन खड़ा करता मिलता है. हर मुलाक़ात में उससे जो बातचीत होती है, वह वाचक के लिए चकित करनेवाली है.
“उसके विषय में जितना ही सोचता, उतना ही जैसे मेरी अपनी विद्वत्ता की तुच्छता और व्यर्थता सामने आ जाती थी. मैं इतना पढ़ा-लिखा था, एक डिग्री कॉलेज में लेक्चरर था, लेकिन कभी भी जो मेरे मन में वे बातें उठी होतीं, जो उसके मन में उठती थीं, या कभी भी जो मैंने वे काम किये होते, जो वह करता था. कभी-कभी मुझे लगता था कि उसने जीवन का कोई बहुत ही बड़ा गुर प्राप्त कर लिया है. उस गुर के प्रताप से ही वह हर बात, हर समस्या, हर काम के मूल में पहुँच जाता है और उसकी स्पष्ट व्याख्या तुरंत प्रस्तुत कर देता है.”
कहानी की सबसे खास बात यह है कि व्यवस्था के साथ नवाब की लड़ाई और खुद अपने साथ वाचक की लड़ाई आद्यंत समानांतर चलती हैं. इस समान्तर योजना में कहानीकार के इतने सूक्ष्म प्रेक्षण उभर कर आते हैं कि उन्हें एक टिप्पणी के छोटे से हिस्से में समेट पाना संभव नहीं. उसके लिए एक स्वतंत्र लेख दरकार है. हाँ, यह बताना ज़रूरी है कि अपने साथ लड़ता हुआ वाचक अंततः नवाब की लड़ाई का एक सहयोगी बन जाता है, अलबत्ता नवाब अब पुलिस के हाथों पड़कर लापता हो चुका है क्योंकि इस व्यवस्था के लिए उसे पचा पाना नामुमकिन है.
'श्रम' कहानी का घटना-काल बहुत लंबा है जिसमें रात-दिन काम करनेवाले और काम के सिवा कुछ और न करनेवाले एक ज़हीन युवक का दारुण चित्र हमारे सामने खड़ा होता है. हर समय अपने काम में थोड़ा और इज़ाफ़ा होने पर वह युवक सोचता है कि अब हालात बेहतर होते ही वह काम में कटौती करेगा, लेकिन वह दिन कभी नहीं आता. कामयाबी पैर चूमे, ऐसी नौबत नहीं आती. अंतत वह अवसाद में जाने लगता है, उसका वज़न गिरता जाता है और वह खाट पकड़ लेता है. शहर की बुद्धिजीवी बिरादरी के लोग उसकी इस हालत के लिए उससे प्रूफ पढ़वाने वाले प्रेस-मालिकों को दोषी ठहराते हैं और अपना आक्रोश प्रकट करते हैं. लेकिन समय की सबसे कड़वी सचाई एक प्रेस-व्यवसायी की बात में सामने आती है:
“व्यवसायी ने अपना मुंह बिगाड़कर कहा—आप लोग मुझसे नहीं, ज़रा इन्हीं से से पूछिए, ये रात-दिन भाग-दौड़ और काम क्यों करते थे?
--इसमें पूछने की क्या बात है—युवक बोला—आदमी अपनी रोटी चलाने के लिए भाग-दौड़ और काम करता है.
--सिर्फ रोटी के लिए इतनी भाग-दौड़ और काम?—नाक सिकोड़कर व्यवसायी ने कहा—नहीं साहब, ये बड़ा आदमी बनना चाहते थे.
--तो इसमें भी इनका कौन अपराध ?—युवक ने फटाक से कहा—कौन आदमी बड़ा आदमी नहीं बनना चाहता?
--बड़ा आदमी बनने की कामना करना अपराध नहीं है,—व्यवसाय ने जैसे अपनी नाक युवक के मुंह में घुसेड़ते हुए कहा—ये उच्च शिक्षा प्राप्त लेखक हैं, इन्हें तो इतनी समझ होनी ही चाहिए कि केवल श्रम करके कोई बड़ा आदमी बन सकता तो हमारे देश के सभी मजदूर-किसान करोड़पति होते—कहकर उसने फुस्स-से हंस दिया.”
कहानी के लगभग अंत में आनेवाला व्यवसायी का यह बयान पूरी कहानी को खोल देता है. यह अपने-आप में एक नयापन है कि कहानी का सार किसी प्रवक्ता पात्र के माध्यम से नहीं बल्कि एक ऐसे पात्र के माध्यम से सामने आता है जिसे वर्ग-शत्रु के खाते में ही रखा जा सकता है! कहानी के रचाव में एक विशेषता यह भी है कि लम्बे घटना-काल को समेटने के लिए कहानी लगभग भागती हुई चलती है और यह शिल्प मुख्य पात्र की भागमभाग वाली ज़िंदगी का आस्वाद देता-सा लगता है. जिस तरह मुख्य पात्र की ज़िंदगी में कोई ठहराव, कोई आराम, कोई अंतर्वीक्षण का क्षण नहीं है, वैसे ही कहानी में भी नहीं है.
भैरव जी की अनेक कहानियां इसी तरह सहज-साधारण दिखती हुई भी बड़े कथ्य और सुचिंतित शिल्प-संरचना का उदाहरण हैं. उन पर जितना विचार होना चाहिए, बिलकुल नहीं हुआ है, और इस लेख की शुरुआत में कही गयी बात को दुहराना गलत न होगा कि उनका यह नुकसान सम्पादक और साहित्यिक नेता वाली छवि ने किया है.